वृद्धजन दिवस पर विशेष... दर्द जब अपनों ने ही दिया तो दवा कौन देगा..?
बच्चों ने उन माता-पिता को घर से बेघर कर दिया जिन्होंने जिंदगी का पाठ पढ़ाया था।
जनजागरुकता सरोकार
रामप्रसाद दुबे
रायपुर, जनजागरुकता। माना के वृद्धाश्रम में सिर पर छत है, देखभाल है, दवा-दारू है, खान-पान की सुविधा के साथ कुछ-कुछ अपनापन भी है ..पर बूढ़ी और पथराई आंखों में कहीं दूर स्मृतियों में अपनों की यादें भी हैं जो अब सुखद नहीं रहीं। जिसने परिवाररुपी बगिया को संवारकर सदाबहार बना दिया उस बागबान को ताउम्र उचित सम्मान मिले यह हर किसी की जिम्मेदारी होनी चाहिए। अपनों के बीच हंसते मुस्कुराते हुए जिंदगी के बाकी दिन गुजारने देना चाहिए परंतु यह हकीकत अब नहीं रही।
बच्चों ने उन माता-पिता को घर से बेघर कर दिया जिन्होंने जिंदगी का पाठ पढ़ाया था। जी हां... हम बात कर रहे हैं परिवार के बुजुर्गों की। हर साल 1 अक्टूबर को अंतरराष्ट्रीय वृद्धजन दिवस मनाया जाता है। इसी कड़ी में "जनजागरुकता" ने माना कैंप वृद्ध आश्रम में रहने वाले बुजुर्गों से बातचीत की और उनके दर्द को बांटने की एक छोटी सी कोशिश की...। बड़ा सवाल... दर्द जब अपनों ने ही दिया तो दवा कौन देगा..?
अपनों से मिला दर्द... पति का रोजगार क्या गया घर से निकाल दिया, भाई-बहन भी भूल गए शकुंतलाजी को
"जनजागरुकता" प्रतिनिधि ने माना वृद्ध आश्रम में पिछले 4 साल से रह रहीं 65 साल की बुजुर्ग शकुंतलाजी ने बताया कि वे वह दिन भूल नहीं पातीं जब परिवार था, पति की प्राइवेट कैंटीन अच्छी चलती थी, दिन अच्छे गुजर रहे थे लेकिन पति का रोजगार बिगड़ा तो पति बेगाना हो गया और घर से निकाल दिया।
निःसंतान शकुंतलाजी ने "जनजागरुकता" को दर्द साझा कर बताया- भाई-बहन की याद आई, उनके दरवाजे पहुंची कि आसरा दे देंगे पर मैं नहीं जानती थी कि भाई भूल जाएगा कि मैं उसकी बहन हूं। सब्जी का व्यवसाय करने वाले भाई ने भी बहन को घर पर रखने से मना कर दिया। अंततः कहीं ठिकाना नहीं मिला तो किसी की मदद से मानव वृद्ध आश्रम पहुंच गई। उनका कहना है कि संतोषी नगर में काफी रिश्तेदार रहते हैं, मन करता है तो इलाज के लिए हॉस्पिटल जाते समय मिलने चली जाती लेकिन कोई यह नहीं कहता कि यहां रात रुक जाओ... वे आगे दुखी होकर कहती हैं... आखिर ऐसा बेगानापन क्यों..?
माता-पिता होते तो याद आती, बोलते-बोलते दर्द ने शब्दों को लील लिया...
वृद्ध आश्रम में रहने वाले बुजुर्ग श्रीवास्तवजी की कहानी भी शंकुतलाजी से जुदा नहीं है। उन्होंने बताया कि अब उनकी उम्र 60 वर्ष हो चुकी है और पिछले 8 साल से आश्रम में रह रहे हैं। खैरागढ़ छुईखदान से बचपन बिताने के बाद आंशिक विकलांगता ने परिवार बनने नहीं दिया। पिता शंकर श्रीवास्तव शिक्षक थे, मां राधाबाई गृहिणी थीं जो अब इस दुनिया में नहीं हैं। 3 भाई-बहन हैं। मिलने भी आते हैं पर यह नहीं कहते कि भाई साथ चल। बुजुर्ग थक गए हैं और यही कहते हैं कि रायपुर में जब तक बना मेहनत-मजदूरी करके दिन काट दिए अब बुढ़ापे में वृद्धाश्रम ही सहारा दे रहा है, जहां दोनों वक्त का भोजन और देखभाल मिलता है। वे यह भी कहते हैं- माता-पिता होते तो परिवार की याद आती, कभी ऐसा भी दिन था कि नवरात्रि में डोंगरगढ़ की मां बम्लेश्वरी के दर्शन के लिए जाया करते थे अब तो क्या दर्शन... यहीं से उन्होंने शब्दों को खो दिया.. शायद दर्द ने शब्दों को लील लिया था...।
68 की लीलावतीजी की भी यही व्यथा... जिन बच्चों को दुनिया दिखाई, उनकी दुनिया ही अब अलग हो गई
15 साल से माना वृद्ध आश्रम में रह रहीं लीलावतीजी 68 साल की हो गई हैं। 1993 में अधीक्षक थीं, तब इन बुजुर्गों की सेवा में यह लगता था कि कैसे परिवार वाले छोड़ देते हैं। जब यही आश्रम उनका आसरा बन गया तो यह समझ में आ गया कि किस तरह से परिवार छूट जाता है।
दो बेटियां व एक बेटा है जो प्राइवेट नौकरी करते हैं। परिवार के साथ हैं लेकिन आते नहीं हैं। बेटियों की शादी हो गई, दूसरे परिवारों में चली गईं मगर आश्रम में आकर पूछने में शर्म आती है कि मां आश्रम में है। गोरखपुर की लीलावतीजी को आश्रम ही घर लगता है क्योंकि वह घर तो पराया है जहां जन्म लिया था, जहां अब लोगों ने भुला दिया इसीलिए कहती भी हैं- अपनों पर तो भरोसा नहीं, गैरों को क्या कहें..? janjaagrukta.com