श्राद्धपक्ष.. पितरों की उपेक्षा से देवी-देवता का पूजन फलदायी नहीं.. दोपहर में ही श्राद्ध..
देवकार्य की अपेक्षा पितृकार्य की विशेषता मानी गयी है। पितृपक्ष एवं श्राद्ध का पुराणों में महत्त्व है। श्राद्ध का नियम है कि दोपहर के समय पितरों के नाम से श्राद्ध और ब्राह्मण भोजन करवाया जाता है।
जीवन मंत्र.. मानें चाहे न मानें..
जनजागरुकता, धर्म डेस्क। सनातन धर्म में सबको स्थान देते हुए सबके लिए कुछ समय आरक्षित किया गया है। इसी क्रम में आश्विन कृष्णपक्ष को पितृपक्ष मानते हुए पितरों के लिए अपनी श्रद्धा समर्पित करने का शुभ अवसर होता है।
ऐसा मानते हुए उनके निमित्त श्राद्ध आदि किया जाता है। प्राय: लोग देवपूजन अथवा देवकार्य तो बड़ी श्रद्धा से करते हैं, परंतु पितृपक्ष में पितरों की अनदेखी करते हैं। जबकि हमारे शास्त्रों में कहा गया है कि-
देवकार्यादपि सदा पितृकार्यं विशिष्यते।
देवताभ्यो हि पूर्वं पितृणामाप्यायनं वरम्।। (हेमाद्रि)
अर्थात- देवकार्य की अपेक्षा पितृकार्य की विशेषता मानी गयी है। अत: देवकार्य करने से पहले पितरों को तृप्त करने का प्रयास करना चाहिए। जो भी मनुष्य पितृपक्ष में पितरों की अनदेखी करता है उसके द्वारा किया गया किसी भी देवी-देवता का पूजन कभी भी सफल व फलदायी नहीं होता है। पितृकार्य में सबसे सरल एवं उपयोगी विधान है श्राद्ध। अपने पितरों को संतुष्ट व प्रसन्न रखने के लिए श्राद्ध से बढ़कर कोई दूसरा उपाय है ही नहीं यथा..
श्राद्धात् परतरं नान्यच्छ्रेयस्करमुदाहृतम्।
तस्मात् सर्व प्रयत्नेन् श्राद्धं कुर्याद् विचक्षण:।। (हेमाद्रि)
अर्थात्- श्राद्ध से बढ़कर कल्याणकारी और कोई कर्म नहीं होता। इसलिए प्रत्येक व्यक्ति को प्रयत्न पूर्वक अपने पितरों का श्राद्ध करते रहना चाहिए। जो भी मनुष्य अपने पितरों के लिए पितृपक्ष में तर्पण और श्राद्ध नहीं करता है वह पितृदोष के साथ अनेक आधि-व्याधियों का शिकार होकर जीवन भर कष्ट भोगा करता है। श्राद्ध कर्म देखने में तो बहुत ही साधारण सा कर्म है, परंतु इसका फल बहुत ही बृहद मिलता है जैसा कि कहा गया है..
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"एवं विधानत: श्राद्धं कुर्यात् स्वविभवोचितम्।
आब्रह्मस्तम्बपर्यन्तं जगत् प्रीणाति मानव:।। (ब्रह्मपुराण)
अर्थात्- श्राद्ध से केवल अपनी तथा अपने पितरों की ही संतुष्टी नहीं होती.. अपितु जो व्यक्ति इस प्रकार विधि पूर्वक अपने धन के अनुरूप श्राद्ध करता है वह ब्रह्मा से लेकर घास तक समस्त प्राणियों को संतृप्त कर देता है। श्राद्ध को भार मानकर कदापि नहीं करना चाहिए। श्राद्ध श्रद्धा का विषय है। पूर्ण श्रद्धा से पितरों के प्रति समर्पित होकर शांत मन से श्राद्ध कर्म को करना चाहिए क्योंकि..
योनेन् विधिना श्राद्धं कुर्याद् वै शान्तमानस:।
व्यपेतकल्मषो नित्यं याति नावर्तते पुन:।। (कूर्मपुराण)
अर्थात्- जो शांत मन हो कर विधि पूर्वक श्राद्ध करता है वह संपूर्ण पापों से मुक्त होकर जन्म-मृत्यु के बंधन से छूट जाता है। श्राद्ध का विधान मनुष्य के अनेक पातकों को मिटा देता है। अपने पितरों के लिए किए गए श्राद्ध से संतुष्ट होकर के पितर धन-धान्य की वृद्धि करते हैं। कोई भी मनुष्य या कोई भी जीव मृत्यु से नहीं बच सकता। जीवन की परिसमाप्ति मृत्यु से होती है। इस ध्रुव सत्य को सभी ने स्वीकार किया है और यह प्रत्यक्ष दिखलाई भी पड़ता है।
प्राणी के उद्धार के लिए लिए परिजनों का कर्तव्य
मनुष्य इस लोक से जाने के बाद अपने परलौकिक जीवन को किस प्रकार सुखी, समृद्धि एवं शांतिमय बना सकता है तथा उसकी मृत्यु के बाद उस प्राणी के उद्धार के लिए परिजनों के द्वारा क्या किया गया यह बहुत ही महत्वपूर्ण हो जाता है। परिजनों द्वारा किया जाने वाला कर्तव्य श्राद्ध कर्म कहा जाता है। यह प्रत्येक प्राणी का कर्तव्य बनता है कि वह अपने पितरों के लिए समय-समय पर श्राद्ध कर्म करता रहे।
पितृ पक्ष में श्राद्ध दोपहर में ही क्यों..
पितरों का भोजन, दक्षिण दिशा की ओर पिंडदान
पितृ पक्ष, पितरों का याद करने का समय माना गया है। भाद्र शुक्ल पूर्णिमा को ऋषि तर्पण से आरंभ होकर यह आश्विन कृष्ण अमावस्या तक जिसे महालया कहते हैं उस दिन तक पितृ पक्ष चलता है। इस दौरान पितरों की पूजा की जाती है और उनके नाम से तर्पण, श्राद्ध, पिंडदान और ब्राह्मण भोजन करवाया जाता है। पितृ पूजा में कई बातें ऐसी हैं जो रहस्यमयी हैं और लोगों के मन में सवाल उत्पन्न करते हैं कि आखिर ऐसा क्यों होता है..
दोपहर में पितरों का भोजन क्यों..
श्राद्ध का नियम है कि दोपहर के समय पितरों के नाम से श्राद्ध और ब्राह्मण भोजन करवाया जाता है। शास्त्रों में सुबह और शाम का समय देव कार्य के लिए बताया गया है।लेकिन दोपहर का समय पितरों के लिए माना गया है। इसलिए कहते हैं कि दोपहर में भगवान की पूजा नहीं करनी चाहिए। दिन का मध्य पितरों का समय होता है।
मृत्युलोक और देवलोक के मध्य लोक में पितरों का निवास..
दरअसल पितर मृत्युलोक और देवलोक के मध्य लोक में निवास करते हैं जो चंद्रमा के ऊपर बताया जाता है। दूसरी वजह यह है कि दोपहर से पहले तक सूर्य की रोशनी पूर्व दिशा से आती है जो देवलोक की दिशा मानी गई है। दोपहर में सूर्य मध्य में होता है जिससे पितरों को सूर्य के माध्यम से उनका अंश प्राप्त हो जाता है। तीसरी मान्यता यह है कि, दोपहर से सूर्य अस्त की ओर बढ़ना आरंभ कर देता है और इसकी किरणें निस्तेज होकर पश्चिम की ओर हो जाती है, जिससे पितृगण अपने निमित्त दिए गए पिंड, पूजन और भोजन को ग्रहण कर लेते हैं।