'स्वामी रामतीर्थ' जी को रात्रि में हुआ आत्म-साक्षात्कार
रामतीर्थ की कुंडली बनाते समय ही उन्होंने यह बात स्पष्ट कर दी थी कि ‘रामतीर्थ’ बहुत बड़ा विद्वान् तथा धर्म-प्रचारक बनेगा, किंतु बहुत कम आयु तक ही वह इस संसार में रहेगा।
जीवन मंत्र.. मानें चाहे न मानें..
जनजागरुकता धर्म डेस्क। आदिकाल से भारत धर्म, आस्था, त्याग, तपस्या का देश है। ऋषि, मुनियों का देश है। जिनके मार्गदर्शन में भारत विश्वगुरु रहा है। ऐसे ही एक महान व्यक्तित्व की जानकारी दें रहे हैं.. स्वामी रामतीर्थ की.. जो एक महान् तत्त्वज्ञानी और धर्मोपदेशक थे।
उनका जन्म 22 अक्टूबर, 1873 को पंजाब के गुजरांवाला जिले के मुरारीवाला गांव में हुआ था। उनके पिता गोसाईं हीरानंद पुरोहिताई करके अपने परिवार की जीविका चलाते थे। गोस्वामी तुलसीदासजी के वंश से उनके परिवार का संबंध था।
रामतीर्थ के दादा गोसाईं रामचंद्र अपने समय के प्रसिद्ध ज्योतिषी थे। रामतीर्थ की कुंडली बनाते समय ही उन्होंने यह बात स्पष्ट कर दी थी कि ‘रामतीर्थ’ बहुत बड़ा विद्वान् तथा धर्म-प्रचारक बनेगा, किंतु बहुत कम आयु तक ही वह इस संसार में रहेगा।
ये रहा उनका कर्मक्षेत्र..
फोरमैन क्रिश्चियन कॉलेज' एवं 'गवर्नमेंट कॉलेज, लाहौर से शिक्षित रामतीर्थ 1895 में क्रिश्चियन कॉलेज में गणित के प्राध्यापक नियुक्त हुए थे। स्वामी विवेकानंद के साथ मुलाकात से धार्मिक अध्ययन में रुचि तथा अद्वैत वेदांत के एकेश्वरवादी सिद्धांत के प्रचार के प्रति उनकी इच्छा और भी मजबूत हुई। उन्होंने उर्दू पत्रिका 'अलिफ़' को स्थापित करने में अपना सहयोग दिया, जिसमें वेदांत के बारे में उनके कई लेख छपे।
हिमालय चले गए.. तीरथ राम से 'स्वामी रामतीर्थ' हो गए
रामतीर्थ ने बड़ी हृदय-विदारक परिस्थितियों में विद्याध्ययन किया था। आध्यात्मिक लगन और तीव्र बुद्धि इनमें बचपन से ही थी। यद्यपि वे शिक्षक के रूप में अपना कार्य भली-भांति कर रहे थे, फिर भी ध्यान हमेशा अध्यात्म की ओर ही लगा रहता था। अत: एक दिन गणित की अध्यापकी को अलविदा कह दिया। 1901 में वे अपनी पत्नी एवं बच्चों को छोड़कर हिमालय में एकांतवास के लिए चले गए और सन्यास ग्रहण कर लिया। यहीं से उनका नाम तीरथ राम से 'स्वामी रामतीर्थ' हो गया। यहीं इन्हें आत्मबोध हुआ। ये किसी के चेले नहीं बने, न कभी किसी को अपना चेला बनाया। अद्वैत वेदांत इनका प्रिय विषय था और जीवन से जुड़ा हुआ था। वर्ष 1901 में प्रो. तीर्थराम ने लाहौर से अन्तिम विदा लेकर परिजनों सहित हिमालय की ओर प्रस्थान किया।
रात्रि में तीर्थराम को हुआ आत्म-साक्षात्कार
अलकनन्दा व भागीरथी के पवित्र संगम पर पहुंचकर उन्होंने पैदल मार्ग से गंगोत्री जाने का मन बनाया। टिहरी के समीप पहुंचकर नगर में प्रवेश करने की बजाय वे कोटी ग्राम में शाल्माली वृक्ष के नीचे ठहर गये। ग्रीष्मकाल होने के कारण उन्हें यह स्थान सुविधाजनक लगा। मध्य रात्रि में प्रो. तीर्थराम को आत्म-साक्षात्कार हुआ। उनके मन के सभी भ्रम और संशय मिट गये। उन्होंने स्वयं को ईश्वरीय कार्य के लिए समर्पित कर दिया और वे प्रो. तीर्थराम से रामतीर्थ हो गए।
परिवार को लौटा दिया
उन्होंने द्वारिका पीठ के शंकराचार्य के निर्देशानुसार केश व मूंछ आदि का त्यागकर सन्यास ले लिया तथा अपनी पत्नी व साथियों को वहां से वापस लौटा दिया।
वेदांत दर्शन स्वामी रामतीर्थजी
1904 में जब वे अमेरिका से भारत वापस आये तो देश का एक बहुत बड़ा वर्ग उनका प्रशंसक बन चुका था। लेकिन जिज्ञासु स्वामी रामतीर्थ की ज्ञान प्राप्त करने की भूख अभी खत्म नही हुई थी। स्वामी जी सांसारिक जीवन को छोड़कर जीवन-दर्शन का ज्ञान प्राप्त करना चाहते थे, इसलिए वे सब कुछ छोडकर हिमालय की कन्दराओं में चले गये।
अधूरा रह गया वेदान्त दर्शन..
यहां उन्होंने व्यावहारिक वेदान्त दर्शन पर एक किताब लिखना आरम्भ किया। इस किताब में उन्होंने अपने जीवन के अनुभव, धर्म और समाज के अनसुलझे रहस्यों को शब्द रूप देने का प्रयास किया, मगर अफ़सोस उनका यह प्रयास पूरा नहीं हो पाया। 17 अक्टूबर 1906 को दीवाली के पावन दिन जब हिमालय क्षेत्र में गंगा के तट पर स्नान कर रहे थे गंगा मैय्या ने अपने इस लाडले और भारत के गौरव को अपने स्नेहमयी आगोश में ले लिया था।