सुदामा ने वह कार्य किया कि समस्त सृष्टि को उनका आभार मानना चाहिए.. भगवान कृष्ण
यह दृष्य भगवान कृष्ण के परम सखा के सालों बाद मिलन के दौरान का है.. आगे ये कि.. सुदामा के साथ बातें करते हुए कब कृष्ण उनके पांव दबाने लगे ये सुदामा को पता ही नहीं चला..
जीवन मंत्र.. मानें चाहे न मानें..
जनजागरुकता, धर्म डेस्क। ..और जैसे ही द्वारकाधीश श्रीकृष्ण ने तीसरी मुट्ठी चावल उठा कर फांक लगानी चाही, रुक्मिणी ने जल्दी से उनका हाथ पकड़ कर कहा, "क्या भाभी के लाये इन स्वादिष्ट चावलों के स्वाद का सारा सुख अकेले ही उठाएंगे स्वामी? हमें भी तो ये सुख उठाने का अवसर दीजिये।"
इस दौरान द्वारकधीश के अधरों पर एक अर्थपूर्ण स्मित उपस्थित हो गयी। कृष्ण ने चावल वापस उसी पोटली में डाले और उसे उठाकर अपनी पटरानी को दे दिया।
यह दृष्य भगवान कृष्ण के परम सखा के सालों बाद मिलन के दौरान का है.. आगे ये कि.. सुदामा के साथ बातें करते हुए कब कृष्ण उनके पांव दबाने लगे ये सुदामा को पता ही नहीं चला। सुदामा सो चुके थे किंतु कृष्ण अपनी ही सोच में मगन उनके पांव दबाते हुए बचपन की बातें करते चले जा रहे थे, कि तभी रुक्मिणी ने उनके कंधे पर हाथ रखा।
कृष्ण ने चौंक कर पहले रुक्मिणी को देखा और फिर सुदामा को, फिर उनका आशय समझ कर वहां से उठ कर अपने कक्ष में चले आये। कृष्ण की ऐसी मगन अवस्था देखकर रुक्मिणी ने पूछा, "स्वामी आज आपका व्यवहार बहुत ही विचित्र प्रतीत हो रहा है।
रुक्मिणी ने कहा आप, जो इस संसार के बड़े से बड़े सम्राट के द्वारका आने पर उनसे तनिक भी प्रभावित नहीं होते हैं, वो अपने इस मित्र के आगमन की सूचना पर इतने भावविव्हल हो गए.. कि भोजन छोड़कर नंगे पांव उन्हें लेने के लिए भागते चले गए।
आप.. जिनको कोई भी दुख, कष्ट या चुनौती कभी रुला नहीं पाई, यहां तक कि जहां बचपन बीता उस गोकुल को छोड़ते समय मैया यशोदा के अश्रु देखकर भी नहीं रोये, वे अपने मित्र के जीर्ण-शीर्ण घावों से भरे पांवों को देखकर इतने भावुक हो गए कि अपने अश्रुओं से ही उनके पांवों को धो दिया।
रुक्मिणी ने कहा कूटनीति, राजनीति और ज्ञान के शिखर पुरुष आप अपने मित्र को देखकर इतने मगन हो गए कि बिना कुछ भी विचार किये उन्हे समस्त त्रिलोक की संपदा एवं समृद्धि देने जा रहे थे।"
रुक्मिणी-सत्यभामा ने रखी जिज्ञासा
उसके बाद कृष्ण ने अपनी उसी आमोदित अवस्था में कहा, "वह मेरे बालपन का मित्र है रुक्मिणी।" रुक्मिणी ने कहा "परंतु उन्होंने तो बचपन में आपसे छुपाकर वो चने भी खाये थे जो गुरुमाता ने उन्हें आपसे बांटकर खाने को कहे थे? अब ऐसे मित्र के लिए इतनी भावुकता क्यों?", वहीं सत्यभामा ने भी अपनी जिज्ञासा रखी।
सुदामा चने इसलिए नहीं खाए कि उसे भूख लगी थी..
इनके सवालों पर भगवान कृष्ण मुस्कुराये.. और फिर कहा "सुदामा ने तो वह कार्य किया है सत्यभामा कि समस्त सृष्टि को उसका आभार मानना चाहिए। वो चने उसने इसलिए नहीं खाये थे कि उसे भूख लगी थी, बल्कि उसने इसलिए खाये थे क्योंकि वो नहीं चाहता था कि उसका मित्र कृष्ण दरिद्रता देखे। सुदामा को ज्ञात था कि वे चने आश्रम में चोर छोड़कर गए थे, और उसे यह भी ज्ञात था कि उन चोरों ने वे चने एक ब्राह्मणी के घर से चुराए थे।
चने पर ब्राह्मणी का श्राप था.. सुदामा को पता था
सुदामा को यह भी ज्ञात था कि उस ब्राह्मणी ने यह श्राप दिया था कि जो भी उन चनों को खायेगा, वह जीवन पर्यंत दरिद्र ही रहेगा। सुदामा ने वे चने इसलिए मुझसे छुपा कर खाये ताकि मैं सुखी रहूं। वह मुझे ईश्वर का कोई अंश समझता था। उसने वे चने इसलिए खाये क्योंकि उसे लगा कि यदि ईश्वर ही दरिद्र हो जायेगा तो संपूर्ण सृष्टि ही दरिद्र हो जायेगी। सुदामा ने संपूर्ण सृष्टि के कल्याण के लिए स्वयं का दरिद्र होना स्वीकार किया।"
इतना त्याग ब्राह्मण की कर सकते हैं..
"इतना बड़ा त्याग!", रुक्मिणी के मुख से स्वतः ही निकला। "मेरा मित्र ब्राह्मण है रुक्मिणी, और ब्राह्मण ज्ञानी और त्यागी ही होते हैं। इतना त्याग ब्राह्मण ही कर सकते हैं।उनमें जनकल्याण की भावना कूट-कूट कर भरी होती है। इक्का-दुक्का अपवादों को यदि छोड़ दिया जाए तो ब्राह्मण ऐसे ही होते हैं।
अपने मित्र के भले के लिए सुदामा की ऐसी दशा हुई
भगवान कृष्ण ने कहा अब तुम ही बताओ रुक्मिणी ऐसे मित्र के लिए ह्रदय में प्रेम नहीं तो फिर क्या उत्पन्न होगा प्रिये? गोकुल छोड़ते हुए मैं इसलिए नहीं रोया था क्योंकि यदि मैं रोता तो मेरी मैया तो प्राण ही छोड़ देतीं। परंतु मेरे मित्र के ऐसे पांव देखकर, उनमें ऐसे घावों को देखकर मेरा ह्रदय भर आया रुक्मिणी। उसके पांवों में ऐसे घाव और जीवन में उसकी ऐसी दशा मात्र इसलिए हुई क्योंकि वह अपने इस मित्र का भला चाहता था।
केवल मित्र सुदामा ने मेरा भला चाहा
पता है रुक्मिणी, परिवार को छोड़कर किसी और ने कभी इस कृष्ण का इतना भला नहीं चाहा। लोगबाग तो मुझसे उनका भला करने की अपेक्षा रखते हैं। बस सुदामा जैसे मित्र ही होते हैं जो अपने मित्र के सुख के लिए स्वेच्छा से दरिद्रता एवं कष्ट का आवरण ओढ़ लेते हैं।
न जाने किन पुण्यों से ऐसे मित्र मिलते हैं
ऐसे मित्र दुर्लभ होते हैं और न जाने किन पुण्यों के फलस्वरूप मिलते हैं। अब ऐसे मित्र को यदि त्रिलोक की समस्त संपदा भी दे दी जाए तो भी कम होगा।", कृष्ण अपने भावुकता से भर्राये हुए स्वर में उक्त बातें बोले। कृष्ण की बात सुनकर कक्ष में समस्त रानियों के नेत्र सजल थे और उधर कक्ष के बाहर खड़े सुदामा के नेत्रों से गंगा-यमुना बह रही थी।