आखिर गीता पर ही शपथ क्यों दिलाई जाती है..?

इसलिए पूरी दुनिया में कर्म की व्याख्या करता सर्वश्रेष्ठ ग्रंथ है भगवद्गीता, जो सिखाती है कि व्यवहार में मनुष्य का जीवन कैसा होना चाहिए। असत्य बोलने, लालच और मोह में पड़कर अपने साथ कुल का भी नुकसान करता है।

आखिर गीता पर ही शपथ क्यों दिलाई जाती है..?

जीवन मंत्र.. मानें चाहे न मानें..

जनजागरुकता, धर्म डेस्क। पूरी दुनिया में सबसे अधिक पढ़े जाने वाले और मनन करने वाला ग्रंथ है गीता..। इस आधार पर हम आपको एक कथा बताने जा रहे हैं, जो कुछ इस तरह है..

भगवान श्रीहरि मूर दैत्य का नाश करने के बाद बैकुंठ लोक में शेष शय्या पर आंखें मूंदे लेटे मन ही मन मुस्कुरा रहे थे। देवी लक्ष्मी उनकी चरण सेवा कर रही थीं। भगवान को मन में ही मुस्काता देख देवी को कौतूहल हुआ। 

देवी लक्ष्मी ने उनसे प्रश्न किया, "भगवन आप संपूर्ण जगत का पालन करते हुए भी अपने ऐश्वर्य के प्रति उदासीन से होकर इस क्षीर सागर में नींद ले रहे हैं, इसका क्या कारण है?" श्रीहरि पुनः मुस्कुराए और अपनी मोहक मुस्कान बिखेरते हुए बोले, "हे प्रिये मैं नींद नहीं ले रहा, बल्कि अपनी अंतर्दृष्टि से अपने उस तेज का साक्षात्कार कर रहा हूं देवी जिसका योगी अपनी दृष्टि से दर्शन कर लेते हैं।"

"जिस शक्ति के अधीन यह समस्त संसार है मैं जब भी उसका मन में दर्शन करता हूं तब आपको ऐसा प्रतीत होता है कि मैं नींद में डूबा हूं, परंतु ऐसा है नहीं।" भगवान ने इतनी रहस्यमय तरीके से बात कही कि लक्ष्मी जी को कुछ बातें समझ में आईं.. कुछ नहीं आईं..

उन्होंने पुनः प्रश्न किया, "हे नाथ आपके अतिरिक्त भी कोई शक्ति है जिसका ध्यान स्वयं आप करते हों, यह बात तो मुझे घोर विस्मय में डालती है।" श्रीहरि ने कहा, "देवी इस बात को अच्छी प्रकार से समझने के लिए आपको गीता के रहस्य समझने होंगे।" 

ये है गीता के रहस्य..

"गीता के समस्त अध्याय मेरे उस शरीर के अंग हैं जिसकी आप सेवा करती हैं"

"गीता के आरंभ के पांच अध्यायों को मेरे पांच मुख जानें"

"छठे से पंद्रहवें अध्याय को मेरी दस भुजाएं समझिए"

"सोलहवां अध्याय तो मेरा उदर है जहां क्षुधा शांत होती है"

"अंतिम के दो अध्यायों को मेरे चरण कमल समझिए"

लक्ष्मीजी की उलझन और बढ़ गई

भगवान ने गीता के अध्यायों की इस प्रकार व्याख्या कर दी, तो लक्ष्मीजी की उलझन घटने की बजाय और बढ़ने लगी। भगवान ने भांप लिया कि देवी के मन में क्या चल रहा है। श्रीहरि ने पुनः कहा, "देवी जो व्यक्ति गीता के एक भी अध्याय अथवा एक श्लोक का भी प्रतिदिन पाठ करता है वह सुशर्मा की तरह सभी पापों से मुक्त हो जाता है।" 

लक्ष्मी जी और उलझ गईं

अब तो देवी लक्ष्मी और उलझ गईं। उन्होंने संयत भाव में अपनी अधीरता व्यक्त करते हुए कहा, "हे नाथ यह आपकी क्या लीला है। एक के बाद एक आप पहेलियां ही कहते जा रहे हैं। कृपया आप मेरी जिज्ञासा शांत करें।"

भगवान ने सुशर्मा की कथा सुनाई

भगवान पुनः मुस्कुराने लगे और उन्होंने लक्ष्मी देवी को सुशर्मा की कथा सुनानी शुरू की। "सुशर्मा नाम का एक घोर पापी व्यक्ति था। वह हमेशा भोग-विलास में डूबा रहता। मदिरा और मांसाहार इसी में उसका जीवन बिताता। एक दिन सांप के काटने से उसकी मृत्यु हो गई।"

नरक में यातनाएं झेलीं

सुशर्मा की मत्यु के बाद उसने नरक में यातनाएं झेलीं और फिर से पृथ्वी पर एक बैल के रूप में जन्म लिया। अपने मालिक की सेवा करते बैल को आठ साल गुजर गए। उसे भोजन कम मिलता लेकिन परिश्रम जरूरत से ज्यादा करनी पड़ती। एक दिन बैल मूर्च्छित होकर बाजार में गिर पड़ा। बहुत से लोग जमा हो गए। वहां उपस्थित लोगों में से कुछ ने बैल का अगला जीवन सुधारने के लिए अपने-अपने हिस्से का कुछ पुण्यदान करना शुरू किया।"

वेश्या के पुण्य से बैल यमलोक पहुंचा

घटना के दौरान उस भीड़ में एक वेश्या भी खड़ी थी। उसे अपने पुण्य का पता नहीं था, फिर भी उसने कहा उसके जीवन में जो भी पुण्य रहा हो उसका अंश बैल को मिल जाए। बैल मरकर यमलोक पहुंचा। बैल के हिस्से में जमा पुण्य का हिसाब-किताब होना शुरू हुआ, तो एक बड़े आश्चर्य की बात हुई। ऐसे आश्चर्य की बात जिसके बारे में यदि धरती लोक पर किसी व्यक्ति को कहो तो विश्वास ही न करे। 

नर्क लोक से मुक्ति हुई

बैल के हिस्से में सर्वाधिक पुण्य उस वेश्या का दान किया हुआ आया था। उसी वेश्या के किए पुण्यदान के कारण बैल को नर्क लोक से मुक्ति हो गई। इतना ही नहीं उसी पुण्यफल से पृथ्वी लोक का भोग करने के लिए बैल को मानव रूप में जन्म देकर भेजा गया। उसके पुण्य इतने थे कि विधाता ने उससे पृथ्वी लोक पर जाने से पहले उसकी इच्छा भी पूछी। ऐसा सौभाग्य करोड़ों में किसी-किसी धर्मात्मा को ही मिलता है।"

ऐसा काम न करूं कि मेरा "भारी" खराब हो

इंसान के रूप में जाने से पहले बैल ने मांगा- हे परमात्मा आप मुझे मानव रूप में पृथ्वी पर भेजने का जो उपकार कर रहे हैं उससे मैं धन्य हो गया हूं। अब आपसे और क्या मांगूं। बैल योनि में मेरा जन्म मेरे पूर्व के कर्मों के दंडस्वरूप ही रहा होगा। इसलिए मैं चाहता हूं कि मनुष्य रूप में जाकर मैं उन कर्मों में न पड़ूं जो मेरा "भावी" खराब करेंगे। मनुष्य रूप में इसकी आशंका सर्वाधिक है।"

मुझे पूर्व कर्मों का स्मरण रहे..

परमात्मा ने पूछा- "तो बताओ मैं तुम्हारा कैसे प्रिय करूं?, अपनी एक इच्छा बताओ।" तब मनुष्य ने मांगा- मुझे बस वह क्षमता प्रदान करें कि मुझे पूर्वजन्म की समस्त बातें स्मरण रहे। उनका स्मरण करके मैं कर्मों से भटकने से स्वयं को रोक सकूंगा। बस इतनी सी कृपा और कर दें। 

उपकार का फल चुकाने का निर्णय

परमात्मा ने उसकी इच्छा स्वीकार ली और उसे वह योग्यता प्रदान कर दी। पृथ्वीलोक पर आने के बाद उसे पूर्वजन्म स्मरण थे इसलिए उसने सबसे पहले उपकार का फल चुकाने का निर्णय किया।

इतना संचित पुण्य कैसे था?

पृथ्वी पर आकर उसने उस वैश्या को तलाशना शुरू किया जिसके पुण्य से उसे मुक्ति मिली थी। आखिरकार उसने उस वैश्या को खोज ही निकाला। उसने वेश्या को सारी बातें बताई और फिर पूछा, देवी! आप धन्य हैं। आपके कर्म तो सबसे नीच कर्मों में आते हैं फिर भी आपके पास इतना संचित पुण्य कैसे था, यह घोर आश्चर्य की बात है। मैं जानना चाहता हूं कि कौन सा पुण्य आपने मुझे दान किया था?" 

तोते से सुनकर मन पवित्र हुआ

वेश्या ने एक तोते की ओर इशारा करके कहा, "वह तोता प्रतिदिन कुछ पढ़ता है। उसे सुनकर मेरा मन पवित्र हो गया। वही पुण्य मैंने तुम्हें दान कर दिया था।" वैश्या की बात सुनकर सुशर्मा के आश्चर्य का तो कोई अंत ही नहीं रहा। एक स्त्री ने उस पुण्यफल का दान किया जिसके बारे में उसे पता तक नहीं है और वह पुण्य इतना प्रभावी है कि उसकी अधम योनि ही बदल गई।

तोते ने बताई पूर्व जन्म की कथा

उसने तोते को आदरपूर्वक प्रणाम किया और उसके ज्ञान का रहस्य पूछा। तब तोते ने अपने पूर्वजन्म की कथा सुनाई। तोता बोला, "पूर्वजन्म में मैं विद्वान होने के बावजूद अभिमानी था और सभी विद्वानों के प्रति ईर्ष्या रखता था। उनका अपमान और अहित करता था।" 

मुनि ने मुझे घायल अवस्था में उठाया

तोते ने बताया मरने के बाद मैं अनेक लोकों में भटकता रहा। फिर मुझे तोते के रूप में जन्म मिला लेकिन पुराने पाप के कारण बचपन में ही मेरे माता-पिता की मृत्यु हो गई।" मैं रास्ते में कहीं अचेत पड़ा था। तभी दैवयोग से वहां से कुछ ऋषि-मुनि गुजरे। मुझे इस अवस्था में देखकर उन्हें दया आई और मुनि मुझे साथ उठा लाए।

आश्रम में गीता सुनता था, वही इनको सुनता हूं

तोते ने बताया आश्रम में लाकर मुझे एक पिंजरे में रख दिया, जहां विद्यार्थियों को शिक्षा दी जाती थी। मैंने वहां गीता का पूरा ज्ञान सीखा। सुनते-सुनते गीता का प्रथम अध्याय मुझे कंठस्थ हो गया। इससे पहले कि मैं अन्य अध्याय सीख पाता एक बहेलिये ने वहां से चुराकर इन देवी को बेच दिया। तोते ने बताया यहां आने के बाद भी मैं अपने स्वभाववश इनको प्रतिदिन गीता के श्लोक सुनाता रहता हूं। वही पुण्य इन्होंने आपको दान किया और आप मानव रूप में आए।

"गीता में साक्षात उनका वास है"

श्रीहरि ने लक्ष्मीजी से कहा, देवी जो गीता का प्रथम अध्याय पढ़ता या सुनता है उसे भवसागर पार करने में कोई कठिनाई नहीं होती। तो इस प्रकार भगवान ने श्रीमद्भगवद्गीता के विभिन्न अध्यायों को अपने शरीर का अंग मानते हुए बताया है कि- "गीता में साक्षात उनका वास है।"

गीता का स्पर्श यानि श्रीनारायण के अंगों का स्पर्श

गीता को स्पर्श करने का अर्थ है आप श्रीनारायण के अंगों का स्पर्श कर रहे हैं। भगवान का स्पर्श करके सौंगंध लेने के बाद कोई असत्य नहीं कहेगा, इसी विश्वास के साथ गीता की सौगंध दी जाती है।

..इसलिए सर्वश्रेष्ठ ग्रंथ है भगवद्गीता

इसलिए पूरी दुनिया में कर्म की व्याख्या करता सर्वश्रेष्ठ ग्रंथ है भगवद्गीता, जो सिखाती है कि व्यवहार में मनुष्य का जीवन कैसा होना चाहिए। असत्य बोलने, लालच और मोह में पड़कर अपने निकटजनों को अनुचित सलाह देने और धर्म के विरूद्ध जाना मनुष्य का सिर्फ अपना ही नहीं बल्कि पूरे कुल के नाश का कारण हो जाता है.. यह सब सिखाती है गीता। ऐसे ग्रंथ से उत्तम और क्या होगा न्याय की सौगंध के लिए साक्षी रखने को ! 

!! जय श्री हरि !!

हारे को हरि ही मिलें, जीते को जयकार।

हारे को जो हरि मिलें, हार बने उपकार।।

!! जय श्री हरि!!

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