साधु वेश की मर्यादा..

इस बात को समझ सकते और अपनी शक्ति समाज कल्याण में लगाते, तो भारत निश्चित ही आध्यात्मिक विश्व गुरु हो सकता है।

साधु वेश की मर्यादा..

जीवन मंत्र.. मानें चाहे न मानें..

जनजागरुकता, विचारणीय डेस्क। बहुत पहले की बात है एक बहुरूपिया राज दरबार में पहुंचा और प्रार्थना की- अन्नदाता बस 5 स्वर्ण मुद्रा का सवाल है और महाराज से बहुरूपिया और कुछ नहीं चाहता। राजा ने कहा- मैं कला का पारखी हूं, कलाकार का सम्मान करना राज्य का नैतिक कर्तव्य है। कोई ऐसी कला दिखाओ कि मैं प्रसन्नता से 5 स्वर्ण मुद्रा पुरस्कार में दे सकूं, पर दान नहीं दे सकता। 

राजा के इस पर बहुरूपिया ने कहा कोई बात नहीं अन्नदाता, मैं आप के सिद्धांत को तोड़ना नहीं चाहता, पर मुझे अपना स्वांग दिखाने के लिए 3 दिन का समय चाहिए, कहकर बहुरूपिया चला गया।

दूसरे दिन नगर से बाहर एक टीले के ऊपर समाधि मुद्रा में एक साधु दिखाई दिए। नेत्र बंद, तेजस्वी चेहरा, लंबी जटाएं। चरवाहों ने उस साधु को देखा। उन्होंने पूछा- स्वामी जी आपका आगमन कहां से हुआ है? कोई उत्तर नहीं मिला, क्या आपके लिए कुछ फल, दूध की व्यवस्था की जाए? कोई उत्तर नहीं मिला। उसके बाद शाम को चरवाहों ने नगर में चर्चा की। घर-घर तपस्वी की चर्चा होने लगी। 

दूसरे दिन नगर के अनेक शिक्षित, धनिक, दरबारी, थाली में मेवा, फल, नाना प्रकार के पकवान लेकर दर्शन के लिए दौड़ पड़े। सबके आग्रह करने पर भी साधु ने उन वस्तुओं को ग्रहण करना तो दूर, आंख भी नहीं खोली। 

प्रधानमंत्री भी पहुंचे.. पर..

यह बात राजा के प्रधानमंत्री तक पहुंची। वह भी स्वर्ण मुद्राएं लेकर दर्शनार्थ पहुंचा और निवेदन किया- बस एक बार नेत्र खोल कर कृतार्थ कीजिए। प्रधानमंत्री का निवेदन भी व्यर्थ गया। अब तो सभी को निश्चय हो गया कि यह संत अवश्य पहुंचे हुए हैं। प्रधानमंत्री ने राजा के महल में जाकर वस्तुस्थिति से अवगत कराया, तो राजा सोचने लगे, जब मेरे राज्य में इतने बड़े तपस्वी का आगमन हुआ है तो उनकी अगवानी के लिए मुझे जाना चाहिए।

राजा भी तपस्वी का दर्शन करने पहुंचे

दूसरे ही दिन सुबह वे दर्शनार्थ जाने को राजा उद्यत हुए। खबर बिजली की तरह फैल गई। जिस मार्ग से राजा की सवारी निकलने वाली थी, वह साफ करा दिए गए। रास्ते में सुरक्षा व्यवस्था ठीक कर दी गई। राजा ने तपस्वी के चरणों में अशर्फियों का ढेर लगा दिया और उनके चरणों में मस्तक टेक कर आशीर्वाद की कामना करने लगे। पर तपस्वी विचलित नहीं हुए। अब तो प्रत्येक व्यक्ति को निश्चय हो गया कि तपस्वी बहुत त्यागी और सांसारिक वस्तुओं से दूर हैं। 

बहुरूपिया फिर दरबार पहुंचा

चौथे दिन बहुरूपिया फिर दरबार में पहुंचा, हाथ जोड़कर बोला- "राजन! अब तो आपने मेरा स्वांग देख लिया होगा और पसंद भी आया होगा, अब तो मेरी कला पर प्रसन्न होकर मुझे 5 स्वर्ण मुद्रा का पुरस्कार दीजिए, ताकि परिवार के पालन पोषण के लिए आटा, दाल की व्यवस्था कर सकूं। 

कौन सा स्वांग? 

राजा चौका- कौन सा स्वांग? बहुरूपिए ने कहा- वही तपस्वी साधु वाला, जिसके सामने आप ने अशर्फियों का ढेर लगा दिया था। राजा ने कहा- तू कितना मूर्ख है। जब राजा सहित पूरी जनता, तेरे चरणों में सर्वस्व लुटाने आतुर खड़ी थी, तब तुमने धन दौलत पर दृष्टि तक नहीं डाली, और अब 5 स्वर्ण मुद्रा के लिए ठिठोली कर रहा है।

तपस्वी की मर्यादा का प्रश्न था

बहुरूपिए ने कहा- "राजन! उस समय एक तपस्वी की मर्यादा का प्रश्न था। एक साधु के वेश की लाज रखने की बात थी। भले ही साधु के रूप में मैं, बहुरूपिया था, पर था तो एक साधु ही। फिर उस धन-दौलत की ओर दृष्टि उठाकर कैसे देख सकता था? उस समय सारे वही भाव थे, और अब पेट की ज्वाला को शांत करने के लिए, अपने श्रम के पारिश्रमिक और पुरस्कार की मांग है आपके सामने। 

अपनी शक्ति समाज कल्याण में लगाएं

काश.. वर्तमान समय के तथाकथित चाहे किसी भी धर्म, पंथ के हों साधु वेश धारी इस बात को समझ सकते और अपनी शक्ति समाज कल्याण में लगाते, तो भारत निश्चित ही आध्यात्मिक विश्व गुरु हो सकता है।

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