श्रीमद्भगवत् गीता.. दो शब्दों में समाई है गीता.. आरम्भ "धर्म" शब्द से.. समाप्ति मम (सत्कर्म) से
यदि मनुष्य समझ जाए वास्तव में उसका क्या है.. तो सारे संघर्ष ही समाप्त हो जाएं। द्रव्य के सिवाय भी कोई अन्य सुख है.. या नहीं.. और आत्मा जैसी भी कोई वस्तु है.. यह मनुष्य जानता ही नहीं।

जीवन मंत्र.. मानें चाहे न मानें..
जनजागरुकता, धर्म डेस्क। दुनिया का महान ग्रंथ, मानव को मानव से जोड़ने वाला, सच्चा मार्ग दिखाने वाली गीता का आरम्भ "धर्म" शब्द से किया गया है। गीता का प्रथम शब्द है "धर्मक्षेत्र"। गीता की समाप्ति मम से की गयी है। गीता का अन्तिम शब्द है मम।
इन दो शब्दों के मध्य समायी हुई है सारी गीता। मम का अर्थ है मेरा। मम धर्मः मेरा धर्म अर्थात् सत्कर्म। मेरे हाथों जो भी सत्कर्म हो जाए, वही मेरा है। मात्र सत्कर्म ही हमारा है, शरीर नहीं। जितना सत्कर्म जीव ने किया होगा, उतना ही साथ जाएगा।
धृतराष्ट्र ने कहा था-
धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः!
मामकाः पाण्डवाश्चैव किम कुर्वत संजय।।
मामकाः अर्थात्ये मेरे पुत्र है इसी कारण भगवान ने उनके पुत्रों को मारा।
धृतराष्ट्र ने कहा था- मामकाः पाण्डवाः।
अर्जुन ने कहा था- शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम्।।
अर्थ- मैं आपका हूं और आपकी शरण में आया हूं। तब भगवान को उसे अपनाना पड़ा और रथ का सारथी बनना पड़ा।
मनुष्य ये जान ले तो विवाद ही न हो
मनुष्य यह नहीं जानता कि उसका क्या है, और क्या नहीं। परिणाम वाद-विवाद और संघर्ष होता रहता है। यदि मनुष्य समझ जाए वास्तव में उसका क्या है.. तो सारे संघर्ष ही समाप्त हो जाएं। द्रव्य के सिवाय भी कोई अन्य सुख है या नहीं और आत्मानंद जैसी भी कोई वस्तु है, यह मनुष्य जानता ही नहीं।
..उसे ही भगवान तारते हैं
तन और मन के स्वामी मात्र परमात्मा ही है, जीव नहीं। जीव तो मात्र मुनीम है। फिर भी जीव मेरा-मेरा करता रहता है। जो मेरा-मेरा करता है उसे भगवान मारते हैं। किन्तु जो तेरा-तेरा करता है, उसे ही भगवान तारते हैं।
लोग गीता में अलग-अलग अर्थ निकालते हैं..
गीता में प्रधानतः अनासक्ति का ही उपदेश है। कोई गीता को कर्मप्रधान, कोई ज्ञान प्रधान कोई भक्तिप्रधान बताता है। श्री शंकराचार्यजी ने कहा है- चित्त शुद्धि के लिए कर्म आवश्यक है। चित्त की एकाग्रता के लिए उपासना आवश्यक है। भक्तिपूर्वक कर्म से चित्त एकाग्र होगा। भक्ति, उपासना मन को एकाग्र करती है। ईश्वर में मन की एकाग्रता से ज्ञान अवश्य मिलेगा। ज्ञान, परमात्मा का अनुभव कराता है।
गीता तीन का समन्वय
जीवन में कर्म, भक्ति एवं ज्ञान (वैराग्य) तीनों की आवश्यकता होती है। गीता केवल कर्मपरक नहीं है, बल्कि कर्म, भक्ति एवं ज्ञान तीनों का समन्वय है।
अन्ततः-
यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः।
तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवा नीतिर्मतिमम।।
अर्थ- अर्थात् जहां योगेश्वर श्रीकृष्ण है, जहां गाण्डीव धनुषधारी अर्जुन हैं, वहीं पर विजय, विभूति (ऐश्वर्य) और अचल नीति है ऐसा मेरा मत है। (गीता जरुर पढ़ें गीता ही सार है।)
।। योगेश्वर श्रीकृष्ण भगवान की जय हो ।।