भगवान की लीला शुरू होती है.. तब प्रेम की.. आनन्द की तृप्ति होती है..
चापत चरण करत नित सेवा, बिन दर्शन नहीं होत कलेवा.. के अर्थ में लाडली जू की भगवान कृष्ण से लीला जानें..
जीवन मंत्र.. मानें चाहे न मानें..
जनजागरुकता, धर्म डेस्क। चापत चरण करत नित सेवा, बिन दर्शन नहीं होत कलेवा.... एक दिन लीला में लाडली जू शयन कर रही हैं, अभी-अभी महारानी करवट लेकर, धीरे-धीरे श्यामसुंदर के विचारों में मग्न अपनी आंखें बन्द किये मन्द-मन्द मुसकुरा रही हैं।
आज ललिता जू के मन में श्यामसुंदर की प्रेरणा से चरण सेवा विचार आया, दासीगण और मन्जरियों को विश्राम दे ललिता जू स्वयं किशोरी जू के चरण दबा रही हैं। लीला कौतुक में श्याम सुंदर वहां पधारे, श्यामसुंदर को वहां देख कर ललिता जू एकदम से परेशान होकर श्यामसुंदर की ओर प्रश्न वाचक दृष्टि से देखती हैं।
उसके बाद श्यामसुंदर हाथ जोड़ विनय की मुद्रा में इशारे से ललिता जू को मौन रहने की प्रार्थना करते हैं, तो ललिता जू इशारे में ही पूछती हैं, क्या चाहते हो..? श्यामसुंदर ने इशारे में ही उत्तर दिया थोड़ी देर चरण सेवा।
ललिता जू कोतुक में थोड़ी आंखे तरेर कर इशारे में कहती हैं, नहीं मिलेगी..। उसके बाद श्यामसुंदर बिलकुल गिड़गिड़ाने वाली स्थिति में आ जाते हैं। लीला में ज्यादा सताती नहीं ललिता जू और इशारे से श्यामसुंदर को बुलाती हैं और इस तरह चरण सेवा सौपती हैं कि प्रिया जू को पता ना चले कि कब ललिता जू हटी और श्यामसुंदर आये..।
प्रियतम के स्पर्श को पहचान लीं..
..पर प्रिया जू तो प्राण वल्लभ प्रियतम के स्पर्श को हाथ लगते ही पहचान जाती हैं..! अब लीला शुरू होती है.. प्रेम की.. आनन्द की..। प्रेम में प्रेमी के सुख के लिए अपने पर कितने भी अपराध आये उसे भी प्रेमी के सुख के लिये स्वीकार करने की, अहो श्यामसुंदर मेरे चरण दबा रहे हैं, क्या करूं.. सोचतीं हैं चरण दबाने से जो सुख श्यामसुंदर को मिल रहा है उसे मैं कैसे मना कर सकती हूं.. पर श्यामसुंदर मेरे चरण दबाये ये मेरे लिये बिलकुल असहनीय है..।
नेत्रों से बह रही अविरल धारा
किशोरी जू इस समय बहुत असमंजस में थी कि प्रिया जू के नेत्रों से अविरल धारा बह निकलती है। श्यामसुंदर को सुख मिल रहा है चरण सेवा से तो रोक भी नहीं सकती, और श्यामसुंदर चरण दबा रहे हैं ये मन में पीड़ा भी है।
सुख के लिये हर पीड़ा सहनी पड़ती है
सोचती हैं उनकी सेवा मुझे करनी चाहिये, दुख होता है कि देव तो मेरी सेवा कर रहे हैं। इसकी पीड़ा भी मन में है। ये है प्रैम ओर प्रेम में केवल प्रेमास्पद के सुख के लिये हर पीड़ा हर कर अपराध सहने का भाव.. किशोरी भाव भी यहीं से शुरू होता है। प्रियतम के सुख के लिए भले ही कोटि जन्म भंयकर नरक में क्यों ना बिताने पड़े.. हम तो केवल एक प्राण वल्लभ का सुख चाहते हैं..! जय रसिक रासेश्वरी लाड़ली जू की..