नींव ही कमजोर पड़ रही है गृहस्थी की..

..पर यह आनंद आज की दुनिया में दिखावा, आलस और परिजनों की उपेक्षा ने छीन लिया है। आज हर दिन किसी न किसी का घर खराब हो रहा है। गृहस्थी उजड़ रही है।

नींव ही कमजोर पड़ रही है गृहस्थी की..

जीवन मंत्र.. मानें चाहे न मानें..

जनजागरुकता, विचारणीय डेस्क। घर गृहस्थी का आधार प्रेम, विश्वास, परिवार के लिए कड़ी मेहनत, समर्पण, त्याग, एक-दूसरे का सहयोग यही आधार रहा है। एक-दूसरे के कामों में ज्यादा दखलंदाजी नहीं की जाती रही है। आगे भी यही आधार रहेगा.. तभी जीवन का आनंद है। ..पर यह आनंद आज की दुनिया में दिखावा, आलस और परिजनों की उपेक्षा ने छीन लिया है। आज हर दिन किसी न किसी का घर खराब हो रहा है। गृहस्थी उजड़ रही है। .. पर इसके कारण और जड़ पर कोई नहीं जा रहा है.. ध्यान नहीं दे रहे हैं...

इस बारे में पुरुषोत्तम पुरोहित, वीरपुर पिछोर ने बेहतर तरीके से बात रखी है। इसके अनेक उदाहरण पेश है..

पारिवारिक, व्यावहारिक बातें..

अनावश्यक दखलंदाज़ी, संस्कार विहीन शिक्षा, आपसी तालमेल का अभाव, ज़ुबान कंट्रोल में न रहना, सहनशक्ति की कमी, आधुनिकता का आडम्बर, समाज का भय न होना, घमंड में झूठे ज्ञान बघारना, अपनों से अधिक गैरों की राय मानना, परिवार से कटना। आज के समय में घंटो मोबाइल पर चिपके रहना, अहंकार के वशीभूत हो कर रह जाना।

ये सिखाते थे अनुशासन

बता दें पहले भी तो परिवार होता था और वो भी बड़ा। ..पर दशकों प्रेम, व्यवहार के साथ आपस में निभती थी। वहीं एक-दूसरे से सम्मानजनक भय भी था, प्रेम भी और रिश्तों की मर्यादित जवाबदेही भी, जो हमें अनुशासन सिखाते थे।

ऐसे में बेटियों की सोच होती है कमजोर

ये बाते भी सीख वाली रही है.. पहले मां-बाप ये कहते थे कि मेरी बेटी गृह कार्य में दक्ष है। और अब बोली जाती है मेरी बेटी नाज़ो से पली है। आज तक हमने तिनका भी नहीं उठवाया। ऐसे में ..तो फिर करेगी क्या शादी के बाद ये बेटियां?

दूसरे के घर की ताक-झांक

शिक्षा के घमंड में आदर सिखाना और परिवार चलाने के संस्कार नहीं देते। माएं खुद की रसोई से ज्यादा बेटी के घर में क्या बना इस पर ध्यान देती हैं। भले ही खुद के घर में रसोई में सब्जी जल रही हो। ऐसे में माताएं दो घर खराब करती हैं। मोबाईल तो है ही रात-दिन बात करने के लिए, दुरूपयोग करने के लिए। 

केवल परिवार के लिए समय नहीं

वहीं दूसरी ओर देखें तो परिवार के लिये किसी के पास समय नहीं है। या तो टीवी या फिर पड़ोसन से एक-दूसरे की बुराई या फिर दूसरे के घरों में ता‌क-झांक। इतने व्यस्त हो गए हैं कि जितने सदस्य घर में है उतने मोबाईल होना जरूरी हो गया है।

बुजुर्गों की उपेक्षा, बोझ समझने लगे हैं

परिवार टूटने का एक बड़ा कारण बुज़ुर्गों की उपेक्षा भी है। उसे तो बोझ समझते हैं लोग।ये स्थिति आ गई है कि पूरा परिवार साथ बैठकर भोजन तक नहीं कर सकता। सब अपने कमरे में, वो भी मोबाईल पर रमे हैं। बड़े घरों का हाल तो और भी खराब है। कुत्ते-बिल्ली के लिये समय है, पर परिवार के लिये नहीं।

बड़ा बदलाव महिलाओं में

वहीं देखें तो सबसे ज्यादा बदलाव तो इन दिनों महिलाओं में आया है। दिन भर मनोरंजन, मोबाईल, स्कूटी.. समय बचे तो बाज़ार और ब्यूटी पार्लर। जहां घंटो लाईन भले ही लगानी पड़े, पर भोजन बनाने या परिवार के साथ उठने-बैठने के लिये समय नहीं।

घर की रसोई भूलने लगे, अशांति ने पैर पसारा

इधर गलत आदत को लोग स्टेटस सिंबल मानने लगे हैं। शहर हो या गांव होटल रोज़ नये-नये खुल रहे हैं। जहां स्वाद के नाम पर कचरा बिक रहा है। और साथ ही बिक रही है बीमारी, इधर फैल रही है घर में अशांति। क्योंकि घर के शुद्ध भोजन में पौष्टिकता तो है ही प्रेम भी है। ..लेकिन आज की पीढ़ी के लिए ये सब पिछड़ापन हो गया है।

गृहकार्य में दक्ष होने की बजाय नृत्य-संगीत की ओर ध्यान

वहीं घर में बुज़ुर्ग तो है ही.. एक चौकीदार के रूप में। उनका दिल दुखाने में भी बहू-बेटियों के साथ बेटों को शर्म नहीं आती। पहले शादी-ब्याह में महिलाएं गृहकार्य में हाथ बंटाने जाती थीं। और अब नृत्य सीखकर मंच पर उतरने लगीं, क्योंकि महिलाओं को संगीत में अपनी प्रतिभा जो दिखानी है। यहां ये भी देखने को मिलने लगा है कि जिसे घर के काम को देखकर तबीयत खराब हो जाती हो वो भी घंटो नाच लेती है। 

मर्यादाएं लांघी, फूहड़ता में लीन

घूंघट और साड़ी हटना तो ठीक है। लेकिन बदन दिखाऊ कपड़े ? ये कैसी आधुनिकता है ? बड़े-छोटे का लिहाज भूले, शर्म या डर को बेच दिए ..तो रहा क्या ? शादी में वरमाला में पूरी फूहड़ता समेट लिए। कोई लड़के को उठा रहा है.. तो कोई लड़की को उठा रहा है.. आखिर ये सब क्या है ?

अब बात करें बच्चों की.. 

संतान सभी को प्रिय है। लेकिन ऐसे लाड़-प्यार में हम उसका जीवन खराब कर रहे हैं।

पहले, स्त्री तो छोड़ो पुरुष भी कोर्ट कचहरी में कदम रखने से घबराते थे। और शर्म भी करते थे। अब ऐसा हो गया है कि वहां जाना फैशन सा हो गया है। पढ़े-लिखे युवा तलाकनामा तो जेब मे लेकर घूमते हैं समझो..

आज अपनी राय थोप कर देखो..

परिवार, समाज की इज्जत का खयाल करते हुए किसी बात पर पहले समाज के चार लोगों की राय मानी जाती थी। और अब मां-बाप तक को जूते पर रखने लगे हैं। अगर गलत है तो बिना औलाद से पूछे या एक-दूसरे को दिखाये रिश्ता करके दिखाओ.. तो जानूं ? सवाल उठता है कि ऐसे में समाज या पंच क्या कर लेगा, सिवाय बोलकर फ़जीहत कराने के..

चुप रहकर घर को बचा लिया जाता था

अब आते हैं सबसे खतरनाक है ज़ुबान और भाषा, जिस पर अब कोई नियंत्रण नहीं रखना चाहता। पहले मर्यादाएं ऐसी थी कि कभी-कभी न चाहते हुए भी चुप रहकर घर को बिगड़ने से बचाया जाता था, ऐसा किया जा सकता है। लेकिन आज चुप रहना कमज़ोरी मान ली जाती है। इसमें आखिर शिक्षित है और हम किसी से कम नहीं.. वाली सोच जो विरासत में मिलने लगी है तो फिर परिवार कैसे मजबूत हो..

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