ब्रह्मलीन शंकराचार्य स्वरूपानंद सरस्वतीः आइए जानें उनके जीवन से जुड़ी कुछ बातें- आजादी की खातिर क्रांतिकारियों के साथ जेल भी गए

जगतगुरु स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती के जीवन से जुड़ी बहुत सी बातें हैं जिसकी हम आपको जानकारी दे रहे हैं-

ब्रह्मलीन शंकराचार्य स्वरूपानंद सरस्वतीः आइए जानें उनके जीवन से जुड़ी कुछ बातें- आजादी की खातिर क्रांतिकारियों के साथ जेल भी गए

नई दिल्ली। द्वारका पीठ के शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद का रविवार को 99 साल की उम्र में निधन हो गया। शंकराचार्य ने मध्य प्रदेश के नरसिंहपुर में आखिरी सांस ली। आजादी के लिए स्वामी जी काफी कम उम्र में घर छोड़कर काशी आ गए। यहां वेद की शिक्षा ली। अंग्रेजों से देश को आजाद कराने के लिए वे क्रांतिकारियों के साथ जेल भी गए। 

जगतगुरु स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती के जीवन से जुड़ी बहुत सी बातें हैं जिसकी हम आपको जानकारी दे रहे हैं- कैसे वे एक क्रांतिकारी से करोड़ों भारतीयों की आस्था के केंद्र बनें.. 

नौ साल की उम्र में आध्यात्मिक यात्रा शुरूकी

स्वामी स्वरूपानन्द का जन्म मध्य प्रदेश के सिवनी जिले में जबलपुर के पास दिघोरी गांव में हुआ था। माता-पिता ने इनका नाम पोथीराम उपाध्याय रखा था। महज नौ साल की उम्र में ही स्वामी स्वरूपानंद ने घर छोड़ दिया और आध्यात्मिक यात्रा शुरू कर दी। देश के तमाम हिंदू तीर्थ स्थलों का भ्रमण करने के बाद वह काशी (वाराणसी) पहुंचे। यहां उन्होंने ब्रह्मलीन श्री स्वामी करपात्री महाराज से वेद-वेदांग, शास्त्रों और धर्म की शिक्षा ग्रहण की। 

 

19 साल की उम्र में अंग्रेजों के खिलाफ झंडा उठाया

साल 1942 की बात है। तब स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती की उम्र महज 19 साल थी। उस वक्त पूरे देश में अंग्रेजों के खिलाफ आजादी का आंदोलन चल रहा था। स्वामी स्वरूपानंद भी इसमें शामिल हुए। उन्होंने आजादी के लिए अंग्रेजों के खिलाफ मुहिम चलाई। तब स्वामी स्वरूपानंद क्रांतिकारी साधु के रुप में प्रसिद्ध हुए थे। अंग्रेजों के खिलाफ मुहिम चलाने के लिए उन्हें पहले वाराणसी की जेल में नौ महीने और फिर मध्य प्रदेश की जेल में छह महीने रहना पड़ा। 

 

दंडी संन्यासी बने 1950 में

1950 में स्वामी स्वरूपानंद दंडी संन्यासी बनाए गए। शास्त्रों के अनुसार दंडी संन्यासी केवल ब्राह्मण ही बन सकते हैं। दंडी सन्यासी को गृहस्थ जीवन से दूर रहना पड़ता है। उस दौरान उन्होंने ज्योतिषपीठ के ब्रह्मलीन शंकराचार्य स्वामी ब्रह्मानन्द सरस्वती से दण्ड-संन्यास की दीक्षा ली थी। इसके बाद से ही उनकी पहचान स्वामी स्वरूपानन्द सरस्वती के रूप में हुई। 1981 में स्वामी स्वरूपानंद को शंकराचार्य की उपाधि मिली। 

 

शंकराचार्य पद को लेकर कोर्ट में चला मामला

आदि शंकराचार्य द्वारा स्थापित चार पीठों में एक उत्तरखंड के जोशीमठ की ज्योतिषपीठ के शंकराचार्य की पदवी को लेकर विवाद देश की आज़ादी के समय से ही शुरू हो गया था। 1960 से यह मामला अलग-अलग अदालतों में चला। 1989 में स्वामी वासुदेवानंद सरस्वती के गद्दी संभालने के बाद द्वारिका पीठ के शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती ने उनके खिलाफ इलाहाबाद की अदालत में मुकदमा दाखिल किया और उन्हें हटाने की मांग की थी। हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के दखल के बाद इलाहाबाद की डिस्ट्रिक्ट कोर्ट में करीब तीन साल पहले इस मामले की सुनवाई डे-टू-डे बेसिस पर शुरू हुई थी।

कोर्ट ने स्वामी जी के पक्ष में सुनाया था फैसला

निचली अदालत में दोनों तरफ से करीब पौने दो सौ गवाहों को पेश किया गया था। ज्योतिषपीठ के शंकराचार्य की पदवी को लेकर करीब सत्ताइस साल तक चले मुकदमे में इलाहाबाद की जिला अदालत ने साल 2015 की पांच मई को स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती के हक में फैसला सुनाया था और 1989 से इस पीठ के शंकराचार्य के तौर पर काम कर रहे स्वामी वासुदेवानंद सरस्वती की पदवी को अवैध करार देते हुए उनके काम करने पर पाबंदी लगा दी थी।

अब तक नहीं सुलझा ..ये मामला

इलाहाबाद जिला अदालत के सिविल जज सीनियर डिवीजन गोपाल उपाध्याय की कोर्ट ने 308 पेज के फैसले में स्वामी वासुदेवानंद सरस्वती की वसीयत को फर्जी करार दिया था। निचली अदालत के इस फैसले के खिलाफ स्वामी वासुदेवानंद सरस्वती ने हाईकोर्ट में अपील दाखिल की थी। इस बीच शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती ने भी हाईकोर्ट में अर्जी दाखिल कर मामले का निपटारा जल्द किए जाने की अपील की थी। 2017 में कोर्ट ने दोनों को ही शंकराचार्य मानने से इंकार कर दिया था। अब तक ये मामला लगातार विवादों में ही रहा है।