विश्व प्रसिद्ध कानी पश्मीना शॉल की बुनाई हो सकती है बंद, 3 महीने से लेकर 3 साल लगते हैं बनाने में
इसकी कताई लकड़ी की सुइयों का उपयोग कर हाथकरघे पर की जाती है। एक कानी शॉल को पूरा होने में 3 महीने से लेकर 3 साल तक का समय लग सकता है।
श्रीनगर, जनजागरुकता, डेस्क। कम मजदूरी के कारण निकट भविष्य में विश्व प्रसिद्ध कानी पश्मीना शॉल बुनने वाले कारीगरों का अभाव हो सकता है। कम मजदूरी मिलने से इसके निर्माण करने वाले भविष्य को लेकर चिंतित हैं। इसलिए कई कारीगर अपने बच्चों को शिल्प की इस विधा को न अपनाने देने का निर्णय कर रहे हैं।
कश्मीरी ऊन से बनी कानी शॉल को स्थानीय रूप से पश्मीना शॉल के रूप में जाना जाता है। इसकी कताई लकड़ी की सुइयों का उपयोग करके हाथकरघे पर की जाती है। एक कानी शॉल को पूरा होने में तीन महीने से लेकर तीन साल तक का समय लग सकता है, जो उसकी डिजाइन की जटिलता और गहनता पर निर्भर करता है।
कम मजदूरी मिलने से बढ़ती जा रही परेशानियां
कारीगर अर्शीद अहमद ने कहा, ‘‘हम कई समस्याओं का सामना कर रहे हैं। दो दशक पहले हमें एक शॉल के बदले 60 हजार रुपए मिल जाया करते थे, लेकिन अब यह रकम घटकर प्रति शॉल 25 हजार रुपये रह गई है। मेरे जैसे कारीगरों को औसत रूप से बेहद मामूली रकम मिल रही है और हम प्रतिदिन 200 से 300 रुपये कमाते हैं।'' हालांकि, कश्मीर में अकुशल श्रमिकों की प्रतिदिन की कमाई 650 रुपये है।
2 कारीगर लगातार काम कर 1 शॉल 2 महीने में तैयार करते हैं
कारीगर जब देखते हैं कि सेलेब्रिटी उनके कठिन कार्य का प्रदर्शन कैमरों के सामने कर रहे हैं, तो उनके बीच नाराजगी का पनपना कोई असामान्य बात नहीं है, क्योंकि वे इस शॉल को मामूली मजदूरी पर बनाने के लिए मजबूर हैं। एक अन्य कारीगर जहूर अहमद कहते हैं, दो कारीगर लगातार काम करके एक शॉल को 2 महीने में बनाते हैं और उन्हें इसके बदले 40 हजार रुपये मिलते हैं।'' जहूर ने कहा कि कानी शॉल बनाने में बहुत से लोग शामिल थे, लेकिन अब कम मजदूरी के कारण केवल कुछ ही कामगार रह गये हैं।
कारीगर की मजदूरी, डिजाइन के आधार पर तय होती हैं कीमत
जहूर और अर्शीद, दोनों ही नहीं चाहते कि उनके बच्चे गुजर-बसर के लिए कानी शॉल की बुनाई करें। एक हथकरघा के मालिक मुस्ताक ने कानी शॉल की गिरती मांग पर अलग राय व्यक्त की। उन्होंने कहा कि वर्तमान में कश्मीर में 50,000 हथकरघे हैं, जबकि इसके पहले इनकी संख्या केवल 5000 थी, ऐसे में आप कानी शॉल की मांग का अंदाजा लगा सकते हैं। अहमद ने कहा कि शॉल की कीमत और कारीगर की मजदूरी डिजाइन के आधार पर तय होती है। हस्तशिल्प विभाग के निदेशक महमूद शाह ने कहा कि भौगोलिक संकेत (जीआई) टैग की शुरुआत के साथ कारीगरों की आर्थिक स्थिति अच्छी होगी।
ऐसे पड़ा पश्मीना नाम
पश्मीना शब्द फारसी के ‘पश्म’ शब्द से बना है, जिसका मतलब होता है ऊन (Wool)। पश्म का मतलब चरणबद्ध तरीके से ऊन की बुनाई भी बताया गया है।kashmertourism.com के मुताबिक पश्मीना ऊन, कश्मीर की एक खास प्रजाति की पहाड़ी बकरी से निकाला जाता है, जिसे च्यांगरा या च्यांगरी (Chyangra) कहते हैं। स्थानीय लोग इसे चेगू भी कहते हैं। इन बकरियों की खासियत यह है कि ये हिमालय के पहाड़ों में 12000 फीट की ऊंचाई और माइनस 40 डिग्री से ज्यादा तापमान में रहती हैं। खासकर, कश्मीर, लद्दाख, नेपाल, तिब्बत के पहाड़ी इलाकों में पाई जाती हैं। कश्मीर में इन बकरियों को जो खानाबदोश पालते हैं, उन्हें चांगपा (Changpa) कहते हैं।
तीन बकरियों के ऊन से बनती है एक पश्मीना शॉल
च्यांगरी बकरियां (Chyangra Goats) सर्दियों के दौरान अपने शरीर से ऊन की ऊपरी परत खुद त्याग देती हैं। इन्हें अलग से काटना नहीं पड़ता है। एक बकरी से निकले ऊन का वजन 80 से 170 ग्राम तक हो सकता है। पश्मीना शॉल (Pashmina shawl) बनाने की प्रक्रिया बेहद थकाऊ है। एक शॉल बनाने में कम से कम 3 भेड़ों की ऊन लग जाती है और एक सप्ताह से 10 दिन का समय लग सकता है। इसीलिये पश्मीना शॉल काफी महंगी भी होती हैं।
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